साफ-सफाई के लाभ / Benefits Of Cleanliness

फख्र की बात है कि बिहार में बड़ी-बड़ी हस्तियां स्वच्छता अभियान में सहयोग के लिए आतुर हैं। इनके प्रयास से कम से कम अपना घर, आसपास और शरीर को साफ रखने की बात लोगों के जेहन में उतर जाए तो डॉक्टरों के पास भीड़ भी घट जाएगी और काफी हद तक बीमारी पर खर्च होने वाले पैसे की बचत हो जाएगी। सरकार को भी इस मायने में राहत मिलेगी कि उसे गंदगी जनित रोगों के उपचार में अधिकांश फंड नहीं देना पड़ेगा और यही रुपया आम आदमी को असाध्य रोगों से लडऩे में मदद देने के काम आ जाएगा। अभी तो गांव और शहर में हालात ये हैं कि डॉक्टर नामी अथवा बिना डिग्री का, सभी के क्लीनिकों पर ऐसे मरीजों की भीड़ रहती है जो संक्रमण से फैलने वाले रोगों वायरल बुखार, खांसी, टीबी, चर्म रोगों आदि से प्रभावित होते हैं। इलाज के चर्चित डॉक्टर पहले इनसे दो-चार सौ रुपये फीस वसूल लेते हैं, उसके बाद एंटीबॉयटिक समेत चार-पांच दवाओं का पर्चा पकड़ा देते हैं, दवाएं कम से कम पांच दिन के लिए लिखी जाती हैं, बाजार से इन्हें खरीदने में तीन-चार सौ का खर्च मामूली बात है। गांव-देहात में फर्जी डॉक्टरों की तो गंदगी जनित बीमारियों में खूब चांदी कटती है, उल्टी-डायरिया की शिकायत में ये तुरंत ग्लूकोज की बोतल चढ़ाने लगते हैं, मरीज एक-दो दिन टिक गया तो हजार-दो हजार की वसूली हो जाती है। इलाज गलत होने पर मरीजों की जान पर आफत आ जाती है। ऐसे में आनन-फानन उसे मेडिकल कॉलेज रेफर कर दिया जाता है।

सरकारी अस्पतालों की हालत यह है कि इनका अधिकांश पैसा संक्रामक रोगों की दवाओं को खरीदने में जाता है, हालांकि यहां सर्दी-जुकाम की सिरप, बुखार की गोली, चर्म रोगों के लिए मरहम-पट्टी की ही खरीद हो पाती है। एंटीबॉयटिक खरीदने को फंड ही नहीं बचता। बिहार की विडंबना यह है कि उसकी बड़ी आबादी गरीबों की है। गांवों मेंं खेतीबारी कर गुजर-बसर करना मजबूरी है। सूबे में उद्योग-धंधे का जाल न होने से मजदूरी कर परिवार का पेट भरने को लोग दूसरे राज्यों में पलायन करते हैं। वहां गंदी बस्तियों में रहने पर संक्रामक रोगों का शिकार होकर घर लौटते हैं। इलाज के लिए सरकारी अस्पतालों में शरण लेना इनकी मजबूरी हो जाती है, जबकि इन अस्पतालों में चिकित्सकीय सुविधाएं सीमित हैं। अफसोसजनक यह है कि पर्याप्त समय रहने के बावजूद सरकारी डॉक्टर इन्हें साफ-सफाई से रहने की सलाह नहीं देते, अस्पताल का नर्सिंग स्टॉफ भी रुचि नहीं लेता है। निजी प्रैक्टिस में लगे डॉक्टरों से तो मरीजों को सफाई का पाठ पढ़ाने की उम्मीद करना इसलिए बेकार है, क्योंकि लोग बीमार नहीं पड़ेंगे तो इनकी दुकान बंद हो जाएगी। शहर और गांवों में घर-घर सफाई की जानकारी देने में बड़ी भूमिका मुखिया, पंचायत सदस्य, आशा कार्यकर्ता, आंगनबाड़ी सेविकाएं, सामाजिक संस्थाएं और स्कूली शिक्षक बखूबी निभा सकते हैं, लेकिन इसके लिए सरकार को आवाज बुलंद करनी होगी। बिहार के लिए यह गौरव की बात है कि यहां विद्या बालन जैसी नामी फिल्मी हस्ती स्वच्छता की अलख जगाने को समय दे रही हैं, परंतु साफ-सफाई को आदत में शुमार करने के लिए निरंतर जागरूकता अभियान चलाने की जरूरत है। बेहतर होगा कि शहरों में इसकी अगुवाई पटना से हो, क्योंकि स्वच्छता के बिना मेट्रो सिटी बनने पर भी राजधानी की सूरत बिगड़ी नजर आएगी।

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